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भटका मेघ (कविता) / श्रीकांत वर्मा
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15:15, 14 फ़रवरी 2010
बिजली बन लपक रहे हैं।<br>
अन्दर-ही-अन्दर मैं<br>
कबसे
कब से
फफक रहा हूँ।<br>
मेरे मन में आग लगी है<br>
भभक रहा हूँ।<br>
अनिल जनविजय
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