ख़ुली जो आँख तो वो था न वो ज़माना था<br>
दहकती आग थी तन्हाई थी फ़साना था
ग़मों ने बाँट लिया मुझे यूँ आपस में<br>
के जैसे मैं कोई लूटा हुआ ख़ज़ाना था
ये क्या के चंद ही क़दमों पे थक के बैठ गये <br>
तुम्हें तो साथ मेरा दूर तक निभाना था
मुझे जो मेरे लहू में डुबो के गुज़रा है<br>
वो कोई ग़ैर नहीं यार एक पुराना था
भरम ख़ुलूस-ओ-मोहब्बत का जाँ रह जाता<br>
ज़रा सी देर मेरा प्यार तो आज़माना था
ख़ुद अपने हाथ से "शहज़ाद" उस को काट दिया <br>
के जिस दरख़्त के टहनी पे आशियाना था