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नदी /शांति सुमन

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|रचनाकार=शांति सुमन
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<poem>
पानी नहीं है तो क्या
नदी तो है
अभी बरसे बादल या आए बाढ़
तो भर जाएगी नदी
अपनी दादी की तरह
दादी बूढ़ी है, कमज़ोर है तो क्या
दादी तो है
दादी है तो पिता को अहसास है कि उनकी माँ है
दादी है तो हाँक लगाती है दिनभर-
दूध पी लो, नाश्ता तैयार है, खाना लग गया है
अर, यह आधा खाना खारक किसने छोड़ दिया,
कौन अभी तक नहीं आया
दादी है तो डाँटती है-इतना नहीं खेलो
कभी देर तक खेलकर आने पर दरवाजा
नहीं खोलती, गुस्सा होती है
फिर वही खोल देती है दरवाजा
उसके अनुभव गढ़े शब्द हमें जगाते हैं
दादी है तो यह सब है
टेबुल से गिर जाती हैं पेन्सिलें, रबर या
किताबें तो दादी उठाती है
खाली पैर चलो तो अप्रसन्न हो जाती है
किताबों के पन्नों की तरह खुले होते हैं उसके दुख
और शब्दों की तरह छपी होती है उसकी खुशी
हवा का एक हल्का झोंका है उसका गुस्सा
शहद में लिपटी हुई उसकी ममता
तुलसी के पत्तों सा गमकता उसका स्नेह
आँखों की नींद और खुशी के सपने हैं
हमारे लिये
नदी सूख भी जाएगी तो नदी होगी
चिड़िया जाएगी उसके पास
पेड़ बदल नहीं लेंगे जगह-खड़े रहेंगे
उसके किनारे, भाग नहीं जाएंगे उसकी
बगल के मंदिक के देवता
कोई छीन नहीं लेगा नदी से नदीपन ।
</poem>


27 फरवरी, 2007
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