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अस्मिता / संध्या पेडणेकर

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[[अस्मिता / संध्या पेडण॓कर]]
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उसकी बातों में
अनुभव से अधिक
उपदेश है
खुलेपन से ज्यादा
बनावटीपन है
एक दिन किसी ने कहा

छलछला आयी उसकी आँखें सुन कर

कहनेवाले को लगा
आसुओं के साथ उसका
कोरा उपदेश बह गया
उसका बनावटीपन झर गया
लेकिन आश्चर्य!
उसके नीचे वह थी ही नहीं
एक घडी थी
एक चूल्हा था
परांत और बेलन था
छुरी और दरांती थी
सुई-धागा था
झाड़ू था
सीले-सिकुड़े कपड़ों का ढेर था
बाजार की थैली थी
अनाज का डिब्बा था
नोन-मिर्च के साथ
बच्चों के स्कूल का हिसाब था
कापियां थीं, पेंसिलें थीं
तहाई हुई, साफ़ धुली चद्दरें थीं
प्रेस किये हुए कपड़ों का ढेर था

गिनती पूरी नहीं हुई थी कहने वाले की
असलियत उस पर खुल गयी थी
फिर भी
जबान उद्दंडता से
उसकी पहचान ढूंढ रही थी

और अचानक वह कौंधी
उसकी आँखें चकाचक करते हुए

उसकी असली मुस्कान चौंधियाती हुई
कहनेवाले के दिल तक उतर आयी
और वह
उसकी असलियत को नकार न सका
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