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03:07, 6 मार्च 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=शांति सुमन
|संग्रह = सूखती नहीं वह नदी / शांति सुमन
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
साँस अब भी चल रही थी
और बची थी देह में गर्मी
इच्छा शक्ति ले रही थी हिलोरें
ऐसे ही हजारों-लाखों लोग जीते हैं यहाँ
जिनकी साँसे चलती है
और देह की गर्मी में बसा करती है इच्छाशक्ति
इस शक्ति के दम पर वे
उठाते हैं बोझ, तोड़ते हैं-
पत्थर-पहाड़ ।
</poem>
१९ जनवरी, २००२