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अब भी दीखती हैं / शांति सुमन

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<poem>
चिड़ियाँ के बैठकर उड़ते ही
जिस तरह उड़ते हैं बिजली के तार
या रस्सियाँ
जिस तरह गमकते हैं बहुत-बहुत दिनों तक
इत्र के दाग
या फिर दीखती रही है बेटी की सूनी मांग पर
सिन्दूर की दमक
और भी सूखे पत्तों के झर जाने के बाद भी
टहनियों पर होते हैं उनके होने के निशान
या फिर मरीधार पर उड़ते रहते हैं
बगुलों के पंख
कुछ ऐसा ही अनुभव है
तुम्हारे नहीं होने के होते हुए क्षणों में
अभी भी दीखती हैं
दरवाजे की साँकल पर तुम्हारे अँगुलियों की छापें
किताबों के पन्नों पर तुम्हारी
आँखों के रंग
और तुम्हारे पूरे होने की उम्मीद
तुम्हारे पहने गये कपड़ों में
कहाँ मरा था वसन्त तुम्हारे लहू में
शरद का साम्राज्य बिछा था
तुम्हारे माथे पर
तुमने खोल दिये स्मृतियों के इतने दरवाजे
कि होने से अधिक है
तुम्हारा नहीं होना ।


(स्मृतिशेष सुशान्त के लिये)


</poem>




१५ सितम्बर, २००३
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