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कला क्या है / रघुवीर सहाय

128 bytes removed, 18:59, 7 मार्च 2010
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|रचनाकार=रघुवीर सहाय
|संग्रह = लोग भूल गये हैं / रघुवीर सहाय
 
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<poem>
कितना दुःख वह शरीर जज़्ब कर सकता है ?
वह शरीर जिसके भीतर खुद शरीर की टूटन हो
मन की कितनी कचोट कुण्ठा के अर्थ समझ उनके द्वारा अमीर होता जा सकता है ?
कितना दुःख वह शरीर जज़्ब कर सकता है ?<br>वह शरीर जिसके भीतर खुद शरीर की टूटन हो<br>मन की कितनी कचोट कुण्ठा के अर्थ समझ उनके द्वारा अमीर होता जा सकता है ?<br><br> अनुभव से समृद्ध होने की बात तुम मत करो<br>वह तो सिर्फ अद्वितीय जन ही हो सकते हैं<br>अद्वितीय याने जो मस्ती में रहते हैं चार पहर<br>केवल कभी चौंककर <br>अपने कुएँ में से झाँक लिया करते हैं<br>वह कुआँ जिसको हम लोग बुर्ज कहते हैं<br><br>
अद्वितीय हर व्यक्ति जन्म से होता है<br>किन्तु जन्म के पीछे जीवन में जाने कितनों से यह <br>अद्वितीय होने का अधिकार <br>छीन लिया जाता है<br>और अद्वितीय फिर वे ही कहलाते हैं<br>जो जन के जीवन से अनजाने रहने में ही<br> रक्षित रहते हैं<br><br>
अद्वितीय हर एक है मनुष्य<br> और उसका अधिकार अद्वितीय होने का छीनकर जो खुद को अद्वितीय कहते हैं <br>उनकी रचनाएँ हों या उनके हों विचार<br>पीड़ा के एक रसभीने अवलेह में लपेटकर <br>परसे जाते हैं तो उसे कला कहते हैं !<br><br>
कला और क्या है सिवाय इस देह मन आत्मा के <br>बाकी समाज है<br>जिसको हम जानकर समझकर <br>बताते हैं औरो को, वे हमें बताते हैं<br><br>
वे, जो प्रत्येक दिन चक्की में पिसने से करते हैं शुरू<br> और सोने को जाते हैं<br>क्योंकि यह व्यवस्था उन्हें मार ड़ालना नहीं चाहती <br>वे तीन तकलीफ़ों को जानकर <br>उनका वर्णन नहीं करते हैं<br>वही है कला उनकी <br>कम से कम कला है वह <br>और दूसरी जो है बहुत सी कला है वह <br><br>
कला बदल सकती है क्या समाज ?<br>
नहीं, जहाँ बहुत कला होगी, परिवर्तन नहीं होगा।
</poem>
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