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मजबूर / अमृता प्रीतम

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मेरी माँ की कोख मजबूर मज़बूर थी...
मैं भी तो एक इन्सान हूँ
आज़ादियों की टक्कर में
जो मेरी माँ के माथे पर
लगनी ज़रूर थी
मेरी माँ की कोख मजबूर मज़बूर थी
मैं वह लानत हूँ
जब सूरज बुझ गया था
जब चाँद की आँख बेनूर थी
मेरी माँ की कोख मजबूर मज़बूर थी
मैं एक ज़ख्म का निशान हूँ,
आज़ादी बहुत पास थी
बहुत दूर थी
मेरी माँ की कोख मजबूर मज़बूर थी...
(1947)
</poem>
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