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|रचनाकार=कुमार विनोद
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लाख चलिये सर बचाकर, फायदा कुछ भी नहीं
हादसों के इस शहर का, क्या पता, कुछ भी नहीं

उस किराने की दुकाँ वाले को सहमा देखकर
मौल मन ही मन हँसा, लेकिन कहा कुछ भी नहीं

काम पर जाते हुये मासूम बचपन की व्यथा
आँख में रोटी का सपना, और क्या कुछ भी नहीं

एक अन्जाना-सा डर, उम्मीद की हल्की किरण
कुल मिलाकर जिंदगी से क्या मिला, कुछ भी नहीं

एक खुद्दारी लिये आती है सौ-सौ मुश्किलें
रोग ये लग जाये तो इसकी दवा कुछ भी नहीं

वक्त से पहले ही बूढ़ा हो गया हूँ दोस्तों
तेजरफ़्तारी से अपना वास्ता कुछ भी नहीं
</poem>
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