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15:25, 17 मार्च 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कुमार विनोद
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<poem>
हर तरफ है भीड़ फिर भी आदमी तनहा हुआ
गुमशुदा का एक विज्ञापन-सा हर चेहरा हुआ
सैल घड़ी का दर हकीकत कुछ दिनो से ख़त्म था
और मैं नादां ये समझा वक्त है ठहरा हुआ
चेहरों पे मुस्कान जैसे पानी का हो बुलबुला
पर दिलों मे दर्द जाने कब से है ठहरा हुआ
आसमां की छत पे जाकर चंद तारे तोड़ दूं
दिल ज़माने भर की बातों से मेरा उखडा हुआ
तुम उठो, हम भी उठें और साथ मिल कर सब चलें
रुख हवाओं का मिलेगा एकदम बदला हुआ
</poem>