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{{KKRachna असमय मुरझाई कली
| रचनाकार= -संध्या पेडणेकर
}}
<poem>

तुम कहाँ
वह कहाँ

कान्य-कुब्ज ब्राह्मण कुल की
तुम एक नाजुक खिलती कली हो
वह मरहट्टा, किसान का बेटा
हल ढोता
गाय- भैंस चराता
गोबर उठाता
कुत्ते के पिल्लों संग
उछलता कूदता
बछड़े के संग गाय का दूध पीता
ठण्ड के दिनों में धूप में ले जाकर
भैंस के बदन की जुएँ चुनता
मध्य रात्रि को करुण स्वर में मिमियाती
बकरी का प्रसव कराता
रात ही में गड्ढा खोद कर
मरे मेमने को गाड देता
बैल की लाश पर धाड़ें मार मार कर रोता
भजन गाते हुए
पियक्कड़ों की तरह झूमता
ठठाकर हंसता तो
तो बच्चे सहम जाते

कहाँ तुम
कहाँ वह

न पहनने-ओढ़ने का शऊर
न खाने पीने का शऊर
खानदानी तो है लेकिन
जमीन के छोटे टुकडे के
और दो-चार ढोरों के अलावा
उसके हिस्से
दो बेवा बुवाएं
दादी-दादा
और एक
तलाकशुदा बहन भी है
मां-बाप के साथ उसे
इन सबकी खातिर में
उम्र गुजारनी है
प्यार करने का उसे कोई हक़ नहीं है
दो जून की रोटी का जुगाड़ भर कर ले
और
दिन-रात खटनेवाली
मेहरारू ढूंढ ले
इतना उसके लिए काफ़ी है
क्या है वह तुम्हारे आगे......

पलकों पर पली
माँ-बाप की लाडली
दुनियादारी समझ न सकी
माँ-बाप प्यारे थे लेकिन
उनकी दी सीख निगल न सकी
गुलाब की पंखुड़ियों सी उसकी
जिस नाजुक त्वचा पर
माँ-बाप को नाज था
आक्रोश में उसने वही जला डाली
कुछ इस कदर
कि पलकें उसकी दोनों जुड़ गयीं, और
जिसके लिए उसने यह लड़ाई छेडी थी
उसे देखने को भी
उसकी नजर तरस गयी

उच्च कुल में पैदा हुई उसकी
नंगी, कटी-फटी, और फिर से सिली
देह को
किस निम्न जाती के मेहतर ने
पुआल भरे ठेले पर लादा
यह पूछने क़ी
माँ-बाप क़ी हिम्मत नहीं हुई

अर्थी के साथ चले उसके
बाप और भाई को
पगलाए मरहट्टा ने जब
रोक कर पूछा -
'इससे भला क्या एक ब्राह्मणी का
'मरहट्टा' से ब्याह भला न होता?'
सहसा वे कुछ बोल ना सके
उसके आंसुओं
और अपनी हताशा ने
उनके अहसासों के साथ
उनके अहंकार को भी
तार तार कर दिया था.
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