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|संग्रह=
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<poem>स्वप्न झरे फूल से,<br>मीत चुभे शूल से,<br>लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,<br>और हम खड़ेखड़े खड़े-खड़े बहार देखते रहे।<br>रहेकारवाँ कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!<br><br>
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,<br>पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,<br>पातपात पात-पात झर गये कि शाख़शाख़ शाख़-शाख़ जल गई,<br>चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,<br>गीत अश्क अश्क़ बन गए,<br>छंद हो दफन दफ़न गए,<br>साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ धुआँ-धुआँ पहन गये,<br>और हम झुकेझुकेझुके-झुके,<br>मोड़ पर रुकेरुके<br>रुके-रुकेउम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।<br>रहेकारवाँ कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।<br><br>
क्या शबाब था कि फूलफूल फूल-फूल प्यार कर उठा,<br>क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा<br>ईस इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,<br>थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,<br>एक दिन मगर यहाँ,<br>ऐसी कुछ हवा चली,<br>लुट गयी कलीकली कली-कली कि घुट गयी गलीगलीगली-गली,<br>और हम लुटेलुटेलुटे-लुटे,<br>वक्त से पिटेपिटेपिटे-पिटे,<br>साँस की शराब का खुमार देखते रहे।<br>रहेकारवाँ कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।<br><br>
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,<br>होठ होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,<br>दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,<br>और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,<br>हो सका न कुछ मगर,<br>शाम बन गई सहर,<br>वह उठी लहर कि दह गये किले बिखरबिखरबिखर-बिखर,<br>और हम डरेडरेडरे-डरे,<br>नीर नयन में भरे,<br>ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।<br>रहेकारवाँ कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!<br><br>
माँग भर चली कि एक, जब नई -नई किरन,<br>ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरनचरनचरण-चरण,<br>शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,<br>गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन -नयन,<br>पर तभी ज़हर भरी,<br>गाज ग़ाज एक वह गिरी,<br>पुँछ पुंछ गया सिंदूर तारतार तार-तार हुई चूनरी,<br>और हम अजान से,<br>दूर के मकान से,<br>पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।<br>कारवाँ कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।<br><br> -- यह कविता deepak द्वारा कविता कोश में डाली गयी है।<br><br/poem>
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