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11:17, 24 मार्च 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=नन्दल हितैषी
}}
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<poem>
.... हाँ
बहुत कुछ सीखा उसने
अपने बाप - दादों से.
मसलन ’मठन्ने’ की पकड़
छेनियों की बारीकी
... और उतार चढ़ाव.
हाँ!
बहुत कुछ सीखा उसने
अपने पेशे से
अपनी साधना और लगन से.
मसलन
कच्चे पक्के पत्थरों की पहचान
उसकी टनटनाहट!
बचपन में जब उसका बाप
पत्थरों से कुछ बतियाता,
छेनियाँ बजाता
उसकी भी मचल उठती हथेलियाँ ....
हाँ!
बहुत कुछ सीखा उसने
अपनी कला से
मसलन
फड़कते हुए होठ
सजीव आँखें
और बरौनियों का तीखापन
और भूख-पियास मार के
उसने भी रची एक रचना
एक दर्शन
एक जीवन्तता.
... और शामिल किया
प्रतियोगिता में
अपनी साधना आराधना
’जो बोलना चाहे’
लोग आते/ देखते न अघाते
और बस देखते रह जाते.
</poem>