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15:13, 4 अप्रैल 2010 <poem>यह पाँचवा खंभा है
इसी से लोकतंत्र की बालकनी टिकी है
चुन्नी खाँ नें चना चबा कर
जूठा अखबार हवा में उछाल दिया
और चौरसिया के पान-ठेले पर लगे
चौदह इंची बुद्धू बक्से पर
सानिया की शादी की खबर का
रस लेने लगे
गरीब लोकतंत्र को
बालकनी की जरूरत क्या है?
पाँचवा खंबा
किसी कुत्ते के काम का भी नहीं
क्यों चाहिये?
इस पर बहस फिर कभी
अभी सब ओर बस -
सानिया-शोएब-आयशा
शरियत और औरत
सेलिब्रिटी और सेलिब्रेशन
खेल-खिलाडी
मिक्सिंग-फिक्सिंग
तू-तू, थू थू
ही ही, हू हू
बडी शादी है
देश के सारे सबसे तेज कैमरे
चौबीसों घंटे सातों दिन
व्यस्त हैं
और देश में सब कुछ सामान्य है?
आज माओवादियों नें
एक बारूदी सुरंग उडा दी
ग्यारह विधवायें चूडियाँ तोड रही हैं
लेकिन सुहागन होने की खबर के बीच
विधवाओं के जिक्र का अपशकुन नहीं
मैं एसा दुस्साहस नहीं करना चाहता
बस उस बोझ से भरी
बालकनीं को देख रहा हूँ
जो भरभरा कर गिरेगी
मुझे पता है
आखिर बर्दाश्त की भी हद होती है। </poem>