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पानी बहुत बरसा / शकुन्त माथुर
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14:44, 2 मई 2010
मेरा मन डरपा
पानी बहुत बरसा
हम तुम निहाल
समर्पण के गीत
विश्वसनीय गीत
दोनों का आकर्षण खींच रहा
कोई बगिया सींच रहा
फिर भी क्यूँ
एक दुखी
अनुभव तड़पा
सिंधु का, सेतु का, नदिया का
जुड़ा है इतिहास
पानी पड़ी नौका रही काँप
जल को देखो
स्वयं अपने को
रहा साध
अबकी पानी बहुत बरसा।
</poem>
अनिल जनविजय
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