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09:05, 5 मई 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश प्रजापति
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<poem>
छिटककर बालियों से
कट चुके खेत की मिट्टी में
गुनगुनाते दाने
चमक रहे हैं मोती-से
शेष है अभी
नदी के कंठ में आर्द्रता
वायु में शीतलता
मौसम में उदारता
सच्चाई में द`ढ़ता
लुंज-पुंज शरीर में उत्कंठा
धरती की कोख में
उम्मीद की हरियाली
जीवन में रंगत
और शब्दों में कविता
उसने अंधे बूढे़ को सड़क पार कराई
उसने रामदीन की छान चढ़वाई
उसने अपनी ख़ुशी ज़रूरतमंदों में बँटवाई
उसने धरती पर बचाए रंग
उसने सच को सच कहा
इस विकट समय में
यही क्या कम है कि
अभी समूल नष्ट नहीं हुई
हमारी सभ्यता
मानवता की सुगंध से
गमक रही है आज भी यह धरती।
</poem>