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11:22, 24 मई 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=विजय कुमार पंत
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<poem>
फटाक !!!!
गुब्बारे के फूटते ही
ताली बजा बजा कर
खुश होता है टिंकू
और मुँह निचे किये
दुखी एक गरीब इंसान
जिसको हो गया एक रुपये का नुक्सान
ये भी क्या माया है
उपरवाले ने क्या खेल बनाया है
एक हे घटना से कुछ लोग
बहुत खुश होते हैं
कुछ जर -जर रोते हैं
और ये ज़रूरी भी नहीं
की केवल गलत चीज़ें
ही दुःख देती हैं
कभी - कभी , ख़ुशी भी
जान ले लेती है
तुम को देखते ही
मैं कभी
खिल उठता था
सूरजमुखी की तरह
आज जलता हूँ
उपले जैसा
धीरे धीरे
धुंवा
बनता हुआ
कभी सोचा नहीं था
तुम्हारी ये
सुन्दरता
जिसने मुझे अपने आप से
भी अलग कर दिया था
इस तरह तड़पाऐगी
जो कभी जीवन का श्रेष्ठ वरदान थी
अभिशाप बन जाएगी
हर वो इन्सान
जो मेरे करीब आता है
मुझे लगता है
तुमसे खिंचा चला आता है
वो भिखारी भी रोज़ रोज़ आता है
तुम्हारी दुत्कार सुनकर चला जाता है
फिर भी रोज़ -रोज़ आता है
तुम क्या जानो
उसका वो दांत निकाल कर हँसते हुए तुमको घूरना
मुझे कितना जलाता है
एक सुंदर चीज़
जो मुझे छोड़ सबको ख़ुशी देती है
मेरे चेहरे की रंगत बदल देती है
जिससे सारी दुनिया सुख पाती है
वो सुन्दरता तुम्हारी मुझे
पल -पल जलती है
अक्सर तुम्हारे साथ चलते चलते
देखता हूँ
कितनी आँखों की तड़प भरी
याचना
जो मुझमें दया का भाव ले आती है
अपने लिए
तब सोचता हूँ
काश तुम अगर मेरी जीवन संगिनी
के सिवा कुछ भी और होती ,
तो इन भद्र याचकों को
तुमको कब का दान कर देता
इस तरह
बार -बार आहत न होता
अलग अलग रिश्तों में
लिपटे अनगिनत भिखारियों से
जो आज भी जूझ रहे है
तुम्हारी सुन्दरता की बीमारी से ....
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