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05:38, 31 मई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
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वे आत्माजीवी थे काया से कहीं परे,
वे गोली खाकर और जी उठे, नहीं मरे,
:::जब तक तन से चढ़काचिता हो गया राख-घूर,
:::::तब से आत्मा
::::::की और महत्ता
:::::::जना गए।
उनके जीवन में था ऐसा जादू का रस,
कर लेते थे वे कोटि-कोटि को अपने बस,
:::उनका प्रभाव हो नहीं सकेगा कभी दूर,
:::::जाते-जाते
::::::बलि-रक्त-सुरा
:::::::वे छना गए।
यह झूठ कि, माता, तेरा आज सुहाग लुटा,
यह झूठ कि तेरे माथे का सिंदूर छुटा,
:::अपने माणिक लोहू से तेरी माँग पूर
:::::वे अचल सुहागिन
::::::तुझे अभागिन,
:::::::बना गए।