1,712 bytes added,
06:13, 31 मई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
था उचित कि गाँधी जी की निर्मम हत्या पर
तारे छिप जाते, काला हो जाता अंबर,
:::केवल कलंक अवशिष्ट चंद्रमा रह जाता,
:::::कुछ और नज़ारा
::::::था जब ऊपर
:::::::गई नज़र।
अंबर में एक प्रतीक्षा को कौतूहल था,
तारों का आनन पहले से भी उज्ज्वल था,
:::वे पंथ किसी का जैसे ज्योतित करते हों,
:::::नभ वात किसी के
::::::स्वागत में
:::::::फिर चंचल था।
उस महाशोक में भी मन में अभिमान हुआ,
धरती के ऊपर कुछ ऐसा बलिदान हुआ,
:::प्रतिफलित हुआ धरणी के तप से कुछ ऐसा,
:::::जिसका अमरों
::::::के आँगन में
:::::::सम्मान हुआ।
अवनी गौरव से अंकित हों नभ के लिखे,
क्या लिए देवताओं ने ही यश के ठेके,
:::अवतार स्वर्ग का ही पृथ्वी ने जाना है,
:::::पृथ्वी का अभ्युत्थान
::::::स्वर्ग भी तो
:::::::देखे!