{{KKRachna
|रचनाकार=ग़ालिब
|संग्रह= दीवाने-ग़ालिब / ग़ालिब
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
किसी को दे के दिल कोई नवासंज-ए-फ़ुग़ाँ क्यों हो
न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में ज़ुबाँ क्यों हो
किसी को दे के दिल कोई नवासंज-ए-फ़ुग़ाँ वो अपनी ख़ू न छोड़ेंगे हम अपनी वज़ा क्यों हो <br>बदलें न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में ज़ुबाँ सुबुकसार बनके क्या पूछें कि हम से सरगिराँ क्यों हो <br><br>
किया ग़मख़्वार ने रुसवा लगे आग इस मुहब्बत को न लाये ताब जो ग़म की वो अपनी ख़ू न छोड़ेंगे हम अपनी वज़ा क्यों बदलें <br>सुबुकसार बनके क्या पूछें कि हम से सरगिराँ मेरा राज़दाँ क्यों हो <br><br>
किया ग़मख़्वार ने रुसवा लगे आग इस मुहब्बत को <br>वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा न लाये ताब जो ग़म की वो मेरा राज़दाँ तो फिर ऐ संग-ए-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यों हो <br><br>
वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा <br>तो फिर ऐ संगक़फ़स में मुझ से रूदाद-ए-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ चमन कहते न डर हमदम गिरी है जिस पे कल बिजली वो मेरा आशियाँ क्यों हो<br><br>
क़फ़स ये कह सकते हो हम दिल में मुझ से रूदाद-ए-चमन कहते न डर हमदम <br>नहीं हैं पर ये बताओ गिरी है जिस पे कल बिजली वो मेरा आशियाँ कि जब दिल में तुम्हीं तुम हो तो आँखों से निहाँ क्यों हो <br><br>
ये कह सकते हो हम ग़लत है जज़बा-ए-दिल में नहीं हैं पर ये बताओ <br>का शिकवा देखो जुर्म किसका है कि जब दिल में तुम्हीं न खींचो गर तुम हो तो आँखों से निहाँ अपने को कशाकश दर्मियाँ क्यों हो <br><br>
ग़लत ये फ़ितना आदमी की ख़ानावीरानी को क्या कम है जज़बा-ए-दिल का शिकवा देखो जुर्म किसका है <br>न खींचो गर हुए तुम अपने को कशाकश दर्मियाँ दोस्त जिसके दुश्मन उसका आस्माँ क्यों हो <br><br>
ये फ़ितना आदमी की ख़ानावीरानी को क्या कम यही है <br>आज़माना तो सताना किस को कहते हैं हुए अदू के हो लिये जब तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आस्माँ तो मेरा इम्तिहाँ क्यों हो <br><br>
यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं <br>अदू कहा तुमने कि क्यों हो ग़ैर के मिलने में रुसवाई बजा कहते हो सच कहते हो लिये जब तुम तो मेरा इम्तिहाँ फिर कहियो कि हाँ क्यों हो <br><br>
कहा तुमने कि क्यों हो ग़ैर के मिलने में रुसवाई <br>बजा कहते हो सच कहते हो फिर कहियो कि हाँ क्यों हो<br><br> निकाला चाहता है काम क्या तानों से तू "ग़ालिब" <br>तेरे बेमहर कहने से वो तुझ पर मेहरबाँ क्यों हो <br><br/poem>