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16:20, 1 जून 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'
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तुम कैसे नद हो जो टंगे रहे हिम की दीवारों पर,
अब तक उतरे नहीं पहाड़ों से भू की जलधारों पर.
मौसम दहका - बंद हवाओं के द्रोही तेवर बदले,
तुम रीझे रह गए बादलों के रंगीन इशारों पर.
ऐसी भी क्या बात – न व्यथित निर्झर-खेल-तराई हो,
तुम सुध-बुध खो बैठे अलका के सज्जित अभिसारों पर.
मरु-अघाती तृष्णा से दरके वन-उपवन को भूले,
रहे ढूंढते भाषा क्षणदा की लमवती पुकारों पर.
अंबर में उमड़ी छवि के नीलम दीपों की रचना में,
तुम न पसीजे कुटी-कोटरों के प्यासे उद्गारों पर.
खींचे जाओ ऊपर तुम रंगीन लकीरें पारे की,
स्यापा छाया रहने दो सिकता के खिन्न कगारों पर.
जीवन-रसा भले मन को जलती लौ से तुमको टेरे,
इंद्रमहल से मना उतरना तुमको तृषित किनारों पर
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