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मुठ्ठी भर रेत / विजय कुमार पंत
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15:28, 3 जून 2010
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समर्पण
ओढे
ओढ़े
किनारे पर
मैं
मुझे भीगाते रहे,
और फिर
बेपरवाह , बेफिक्र
जाते रहे …..बार- बार
मुझे
और मैं फिसलती गयी
सुनहरे समय की मुठ्ठियों से
देखो!
कैसे बिखर गया है
तुम्हारे अथाह किनारों पर
Abha Khetarpal
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