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पत्थर / विजय कुमार पंत
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15:43, 3 जून 2010
तुम खिल उठती हो
जो भी हो मुझे
अच्चा
अच्छा
लगता है
वैसे "शाहजहाँ " के अलावा ये कोई
नहीं जनता की
“ताज महल ” याद कर लेते हैं
बाकि सब बेजान समझ कर
ठोकर
मरते
मारते
रहते हैं
केवल कुछ मुम्ताज़ों को ही
हम पर तरस आता है
Abha Khetarpal
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