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06:09, 6 जून 2010 किताबों में मेरे फ़साने ढूंढते हैं,
नादां हैं गुज़रे ज़माने ढूंढते हैं ।
जब वो थे तलाशे-ज़िंदगी भी थी,
अब तो मौत के ठिकाने ढूंढते हैं ।
कल ख़ुद ही अपनी महफ़िल से निकाला था,
आज हुए से दीवाने ढूंढते हैं ।
मुसाफ़िर बे-ख़बर हैं तेरी आंखों से,
तेरे शहर में मैख़ाने ढूंढते हैं ।
तुझे क्या पता ऐ सितम ढाने वाले,
हम तो रोने के बहाने ढूंढते हैं ।
उनकी आंखों को यूं ना देखो ’फ़राज़’,
नए तीर हैं, निशाने ढूंढते हैं ।