{{KKCatKavita}}
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'''नीम से...'''
अली!
कब तक रखोगी व्रत
देह पर फिर कराओ मसाज़
मानसून के हाथों
संकुचाओ सकुचाओ मत
लजाओ मत
उसके मसाज से
तुम भींज गई हो
उतनी गहराई तक
जहां जहाँ तक
तुम्हारी आत्मा भी
नहीं पहुंची पहुँची है
अब करा ही डालो लगन
हवा के होठों पर बाँसुरी बजाएगी
कोमल आम्रवट त्याज
कूजेगी तुम्हारी गबरू बांहों बाँहों में.।
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