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होते गये / विजय वाते

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|रचनाकार=विजय वाते
|संग्रह= गज़ल / विजय वाते
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<poem>
जैसे जैसे हम बड़े होते गये,
खूठ कहने मे खरे होते गये |

चाँद बाबा गिल्ली डंडा इमलियाँ,
सब किताबों के सफे होते गये |

अब तलाक तो दूसरा कोई न था,
रफ्ता रफ्ता तीसरे होते गये |

एक बित्ता कद हमारा क्या बढ़ा,
हम अकारण ही बुरे होते गये |

जंगलों में बागबां कोई नहीं,
इसलिए पौधे हरे होते गये |</poem>