शेष भाग जल्द ही टंकित बालपन में था अचेत, विमूढ़ इतना गूढ़ता मैं उस कथा की कुछ न समझा। किंतु अब जब अध्ययन, अनुभव तथा संस्कार से मैं हूँ नहीं अनभिज्ञ तुलसी की कला से, शक्ति से, संजीवनी से, उस कथा को याद करके सोचता हूँ : हाथ जिसका छू क़लम ने वह बहाई धार जिसने शांत कर दी जाएगी। कोटिको की दगध कंठों की पिपासा, सींच दी खेती युगों की मुर्झुराई, औ" जिला दी एक मुर्दा जाति पूरी; जीभ उसकी छू अगर दो दाँतनों से नीम के दो पेड़ निकले तो बड़ा अचरज हुआ क्या। और यह विश्वास भारत के सहज भोले जनों का भव्य तुलसी के क़लम की दिव्य महिमा व्यक्त करने का कवित्व-भरा तरिक़ा। मैं कभी दो पुत्र अपने साथ ले उस पुण्य थल को देखना फिर चाहता हूँ। क्यों कि प्रायश्चित न मेरा पूर्ण होगा उस जगह वे सिर नवाए। और संभव है कि मेरे पुत्र दोनों व्यंग्य से, संदेह से कुछ मुसकराएँ।