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19:00, 15 जून 2010 ग़ज़ल
क़रार दे के किया जिसने बेक़रार मुझे
है इंतिज़ार उसी पल का इंतिज़ार मुझे
ये और बात कि आँसू हुए हैं ख़र्च मगर
समझ में आ गया ख़्वाबों का कारोबार मुझे
जो प्यास है तो क़रीब आओ और बुझालो प्यास
मैं एक दरिया हूँ समझो न रेगज़ार मुझे
सदा-ए-दिल तो बहुत दूर तक पहुँचती है
पुकारते तो सही दिल से एक बार मुझे
उसे छुआ तभी दरवाज़ा-ए-यक़ीन खुला
नहीं था अपनी ही आँखों पे ऐतबार मुझे
वो फूल ख़ाना-ए-दिल में महकते रहते हैं
जो फूल दे के गई थी कभी बहार मुझे