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के लिए / विजय वाते

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<poem>
कह रहा हूँ ये गजल तुझको सुनाने के लिए
तू कगार बेताब है यूँ उठ के जाने के लिए

इल्तजा है ये मेरी थोड़ी तो मेरी कद्र कर
मैं बड़ा ही कीमती हूँ यूँ जमाने के लिए

अपनी छत से नीचे आकर क्या नहीं मैंने किया
तू बता मैं क्या करूँ तुझको लुभाने के लिए

है ये बस तेरे लिए इसको ज़रा महसूस कर
प्यार कर सकता नहीं मैं यूँ जताने के लिए

दे दिया सर्वस्व अपना जो भी कहने के लिए
दे रहा हूँ वो गजल मैं गुनगुनाने के लिए
</poem>