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09:35, 18 जून 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=विजय वाते
|संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते;ग़ज़ल / विजय वाते
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
वो कहाँ राजधानी के महलों मे है
जो सुदामा के चावल के दानों मे है
जिसपे झूले पड़े थे वो पीपल हरा
अब सजावट के सामां सा गमलों मे है
हम जहाज़ों से उड़ कर कहाँ जायेंगे
लौटना तो पुराने मुहल्लों मे है
दोस्त यारों ने अब तक जो बख्शी हमें
वो मोहब्बत कहाँ अपने तमगों में है
आसमां इनके कदमों तले आ सके
जान इअतनी तो नन्हें परिंदों मे है
इन हवाओं कि खुश्की का ये राज़ है
सब शहर की नमी कोई रुमालों मे है
</poem>