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चेतना के चाप

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|रचनाकार=रमेश कौशिक
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<poem>चेतना के चाप

अर्थहीनता और असंगतियों का
अनंत पारावार
जब अपने
उच्च जल शिखरों पर
काले-केतु फहरा रहा था
मैंने उसके समर्थन में
नारे नहीं लगाए
और इसीलिए
मेरा सिर काटकर
फेंक दिया तट पर
जहाँ मेरी संदर्भ-रहित
अकेली आत्मा बुत बन गई है
जो सब कुछ देखती है
लेकिन चुप है।

जब मैं जीवित था
तब नए-नए सपने देखता था
सपनों में
फूलों के महल बनाता था
जिनमें मेरी प्रेमिका का
उष्ण-पराग महमहाता था
किन्तु मेरे पड़ोसियों ने
उसे बारूद से झुलसा दिया
और जब मैं बेहोश था
तब मेरे साथ
मेरी प्रेमिका के स्थान पर
एक मशीनगन को सुला दिया।

मैं इतने पर भी
आदमी के सिर और बंदगोभी में
फर्क करता रहा
लेकिन उन्होंने समझा
मैं उनका बेड़ा गर्क करता रहा।

अब मैंने सपने देखने
बंद कर दिये हैं
लेकिन कभी-कभी बीते क्षण
जब अपनी पीठ पर
सपनों को लाद गुज़रते हैं
तो लोग
उनसे भी डरते हैं।

अब मैं गाता भी नहीं हूँ
क्योंकि ज़िंदगी का घोड़ा
अपनी टापों से
मेरे गीतों को कुचलता
बहुत आगे निकल आया है।
मुझमें जो पिघलता था
बर्फ के फूलों की तरह
वह पत्थर बन गया है
गीतों का सौदागर होता तो शायद
आज भी गाता
कुछ बेचा नहीं
इसलिए खरीदा भी नहीं
सौदागरों की बिरादरी में
अछूत हूँ
अलग एक टापू पर खड़ा हूँ
देखता हूँ
सभी बड़ी मछलियों के सिर सड़ गए हैं
और छोटी मछलियों की कब्रें
कीचड़ में बन गई हैं
जिन पर कभी पश्चिम से
कभी पूर्व से
तोप के गोले फातिहा पढ़ते हैं
आशा करूँ-
कभी इन कब्रों पर
सरपत उगेगी ?
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