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हँसकर तपते रहो / शिशुपाल सिंह 'निर्धन'
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03:41, 27 जून 2010
::जीवन-पथ में, गहरे पानी की।
हँसकर तपते रहो छाँव का अर्थ समझने को,
अश्रु बहाने से न कभी
पाशःआण
पाषाण
पिघलता है ।
</poem>
अनिल जनविजय
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