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14:33, 1 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कर्णसिंह चौहान
|संग्रह=हिमालय नहीं है वितोशा / कर्णसिंह चौहान
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
घर में रहते बेघर हैं
सामाजिक रस्मों बंधे
दो शरीर
पकाते हैं
खाते हैं
आते हैं
जाते हैं
खर्च के हिसाब पर
कभी कभी बतियाते हैं
<poem>