1,162 bytes added,
14:47, 1 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कर्णसिंह चौहान
|संग्रह=हिमालय नहीं है वितोशा / कर्णसिंह चौहान
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
फिर मिलेंगे
यूं ही अचानक
फिर विदा होंगे
भरे हुए अनमने
जब पंख फड़फड़ाएं
तो आना
सूरज की सीध में
उड़ते जाना
नए नीड़ों की खोज में
उड़ती मिलेंगी सारस की कतारें
उन्हीं में मिल जाना
समुद्रों, पहाड़ों, बादलों के पार
घने जंगल में
आदिम बस्तियों के बीच
मैं वहीं कहीं हूँगा
धान निराता हुआ
बेहद आसान है
ढूंढ ही लोगे
फैली धरती पर
नन्हे दानों की उष्मा
दूर से बुलाती है
<poem>