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07:51, 2 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव
|संग्रह=
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<poem>
''' कविता! तुम आवारा हो गई हो '''
नंगी-अधनंगी
चिथड़ी-उटंगी
धोती लपेटे,
रूखे बाल
रस्सियों सी उमेठे,
गन्हाते गोबर-सी
पसीनियाए काजल-सी
मेल उबेटे,
आँखों और कानों में
कीचड़-खूंट समेटे,
कोल-भीलों संग
भंगी-कबीलों संग
वाहियात बन गयी हो
नाबदानों में डोलती हो
झुग्गियों में लिसढ़ती हो
चमरौटियों में भी
मटक-मटक चलती हो,
बिहारी मजूरों की
खैनी मसलती हो,
देर-सबेर
अंधेर-उजेर
मेहतर के हाथों
साग-भात निगलती हो
कहां गए--वो तेरे
नखरे और नख-शिख
भाल-गाल, उर, कटि
पूरी की पूरी कबाड़ बन गई हो
कविता! तुम आवारा हो गई हो
राजमहलों से ठिठककर
रनिवासों से भटककर
राजकुंवरों से चिटककर
तुम बंजारन बन गई हो.