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|रचनाकार=वीरेन डंगवाल
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<poem>

आ गई हरी सब्जियों की बहार
पराठे मूली के, मिर्च, नीबू का अचार

मुलायम आवाज में गाने लगे मुंह-अंधेरे
कउए सुबह का राग शीतल कठोर
धूल और ओस से लथपथ बेर के बूढ़े पेड़ में
पक रहे चुपके से विचित्र सुगन्‍धवाले फल
फेरे लगाने लगी गिलहरी चोर

बहुत दिनों बाद कटा कोहरा खिला घाम
कलियुग में ऐसे ही आते हैं सियाराम

नया सूट पहन बाबू साहब ने
नई घरवाली को दिखलाया बांका ठाठ
अचार से परांठे खाये सर पर हेल्‍मेट पहना
फिर दहेज की मोटर साइकिल पर इतराते
ठिठुरते हुए दफ्तर को चले

भोंदू की तरह
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