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शव पिताजी / वीरेन डंगवाल

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<poem>

चार दिन की दाढ़ी बढ़ी हुई है
उस निष्‍प्राण चेहरे पर
कुछ देर में वह भी जल जाएगी
पता नहीं क्‍यों और किसने लगा दिये हैं
नथुनों पर रूई के फाहे
मेरा दम घुट रहा है

बर्फ की सिल्‍ली से बहते पानी से लतपथ है दरी
फर्श लथपथ है
मगर कमरा ठण्‍डा हो गया है
कर्मठ बंधु-बांधव तो बाहर लू में ही
आगे के सरंजाम में लगे हैं
मैं बैठा हूं या खड़ा हूं या सोच रहा हूं
या सोच नहीं रहा हूं
य र ल व श श व ल र य
ऐसी कठिन उलटबांसी जीवन और शव की.
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