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06:50, 5 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन डंगवाल
|संग्रह=स्याही ताल / वीरेन डंगवाल
}}
<poem>
पिता आग थे कभी, धुआं थे कभी, कभी जल भी थे
कभी अंधेरे में रोती पछताती एक बिलारी
कभी नृसिंह कभी थे खाली शीशी एक दवा की
और कभी हंसते-हंसते बेदम हो पाता पागल
शीश पटकता पेड़ों पर, सुनसान पहाड़ी वन में
अभी आग हैं
अभी धुआं हैं
अभी खाक हैं
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