573 bytes added,
10:57, 5 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
'''संगीन जुर्म'''
पैतृक प्रायश्चित के
संगीन जुर्म में,
वह आजीवन पश्चाताप के
कटघरे में
अपने ही बनाए सवालों से
जिरह करता रहा
ज़ुर्मी होने का
ताउम्र
ठोस तर्क ढूँढता रहा.