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वृक्‍क / वीरेन डंगवाल

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<poem>

वृक्‍क कहने से बात ही बदल जाती है
गुर्दे तो बकरे के भी होते हैं

अपने पीछे ही डॉक्‍टर ने
लगाया हुआ है वह लाल-नीला नक्‍शा
जिसमें सेम के बीच जैसे वृक्‍कों की आंतरिक संरचना
बड़ी सफाई से दिखाई गई है
तुम डॉक्‍टर से बातें करते हुए भी
देख लेते हो कि
कितनी चक्‍करदार गलियों से
छनने के बाद
देह में दौड़ता है खून और उत्‍सर्जन के रास्‍ते पर जाता है पेशाब

सारी खतरनाक सचाइयां इतनी ही आसान होती हैं
सारी अतीव सुंदरताएं भी
अलबत्‍ता उन्‍हें आसान बनाने का काम
बेइन्तिहा जटिल होता है
और स्‍वस्‍थ गुर्दों वाले प्रसन्‍न ज्ञानी ही उसे अंजाम दे पाते हैं
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