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पीपल की छाँव / जगदीश व्योम

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|रचनाकार=जगदीश व्योम
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सृष्टि ने ये कैसा अभिशप्त बीज बोया
व्योम की व्यथा को निरख इंदर्धनुष इन्द्रधनुष रोया
प्यासे को दे अंजुरी भर न पानी
भगीरथ का करें उपहास
माना कि अंत हो गया है वसंत का
संभव है पतझर यही हो बस अंत का
सारंग न ओेढ़ो ओढ़ो उदासी की चादर
लौटेगा मधुमास
फिर क्यों होता बटोही उदास
अब मत हो तू बटोही उदास
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