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हिमाला / इक़बाल
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05:28, 8 जुलाई 2010
छेड़ती जा इस इराक़े-दिलनशीं के राज़ को
ऐ मुसाफ़िर
!
दिल समझता है तेरी आवाज़ को
लैली-ए-
सब
शब
खोलती है
आके
आ के
जब ज़ुल्फ़े -रसा<ref>सम्पूर्ण
केशराशि
केश-राशि
</ref>
दामने-दिल खींचती है आबशारों<ref>झरनों</ref> की सदा
द्विजेन्द्र द्विज
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