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11:31, 12 जुलाई 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=संजय चतुर्वेदी
|संग्रह=प्रकाशवर्ष / संजय चतुर्वेदी
}}
<Poem>
कांपता रहता है खड़ा-खड़ा काफी रात
बंधा हुआ पेड़ के सहारे
पेड़ की तरह असहाय
आते हैं वनराज अलसायी चाल से
टटोलते हैं उसका धड़कता हुआ दिल
रहम की तरह टूट पड़ते हैं उस पर
छोड़ आते हैं कुछ तसवीरें
कल के अखबारों में छपने के लिए
जंगल के पत्ते
सिर झुकाए देखते हैं सारा तमाशा
उदास सरसराहट पर फैलती है
साहस-गाथा प्रकृति-प्रेमियों की.
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