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बूढ़े / संजय चतुर्वेदी

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<Poem>

बूढ़ों का संसार
मृत्‍यु को छूता है
अपने अंडे तोड़कर
बूढ़े गरूड़ बनकर उड़ते हैं
बूढ़े मृत्‍यु के उस पार से आते हैं
सुबह अपने घोंसलों में
बूढ़ों की बातें साफ नहीं होती
आंखों में होते हैं जाले
बूढ़े रात में देखते हैं
भंगुर नींद के भी अनंत विस्‍तार में
नातवां और डरे हुए बूढ़े
परिवार की सारी बलाओं को थामे रहते हैं
जब अग्नि उन्‍हें धारण करती है
बूढ़े शून्‍य की आवृत्ति पर गूंजते हैं
सृष्टि के साथ अनुनाद में
अचानक जब सांस फूलती है
बूढ़े हमें आवाज देते हैं
पांच सौ प्रकाशवर्ष दूर से
मृत्‍यु के दिन बूढ़ों का जन्‍म होता है
बूढ़े अचानक हममें प्रवेश कर जाते हैं.
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