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कभी कभी / साहिर लुधियानवी
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10:12, 10 जुलाई 2007
न कोई जादा न मंज़िल न रोशनी का सुराग़ <br>
भटक रही है
ख़ालाओं
ख़लाओं
में ज़िन्दगी मेरी <br>
इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊँगा कभी खोकर <br>
मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स मगर यूँ ही <br><br>
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है <br><br>
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