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कभी कभी / साहिर लुधियानवी

1 byte added, 08:53, 2 नवम्बर 2007
पुकारतीं मुझे जब तल्ख़ियाँ ज़माने की <br>
तेरे लबों से हलावत हलावट के घूँट पी लेता <br>
हयात चीखती फिरती बरहना-सर, और मैं <br>
घनेरी ज़ुल्फ़ों के साये में छुप के जी लेता <br><br>
ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले <br>
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी गुज़रगाहों से <br>मुहीब साये मेरी सिम्त सिम्ट बढ़ते आते हैं <br>
हयात-ओ-मौत के पुरहौल ख़ारज़ारों से <br><br>
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