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कविता-7 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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'''आरम्भ''' <br />{{KKGlobal}}कहाँ मिली मैं? कहाँ से आई? यह पूछा जब शिशु ने माँ से<br />{{KKRachnaकुछ रोती कुछ हँसती बोली, चिपका कर अपनी छाती से<br />|रचनाकार=रवीन्द्रनाथ ठाकुर छिपी हुयी थी उर में मेरे, मन की सोती इच्छा बनकर<br />|संग्रह=बचपन के खेलों में भी तुम, थी प्यारी सी गुडिया बनकर<br />}}[[Category:अंग्रेज़ी भाषा]]{{KKCatKavita‎}}मिट्टी की उस देव मूर्ति में, तुम्हे गढ़ा करती बेटी मैं<br /Poem>प्रतिदिन प्रात यही क्रम चलता, बनती और मिलती मिट्टी में<br />'''आरम्भ'''
कुलदेवी की प्रतिमा में भीकहाँ मिली मैं ? कहाँ से आई ? यह पूछा जब शिशु ने माँ सेकुछ रोती कुछ हँसती बोली, तुमको ही पूजा है मैंने<br />चिपका कर अपनी छाती सेमेरी आशा और प्रेम छिपी हुई थी उर में, मेरे और माँ के जीवन में<br />सदा रही जो और रहेगी, अमर स्वामिनी अपने घर मन की<br />सोती इच्छा बनकरउसी गृहात्मा की गोदी बचपन के खेलों मेंभी तुम, तुम्ही पली हो युगों युगों से<br />विकसित होती हृदय कली की, पंखुडियां जब खिल रही थी<br />मंद सुगंध बनी सौरभ प्यारी-सी, तुम ही तो चहु ओर फिरी थी<br />गुड़िया बनकरसूर्योदय मिट्टी की पूर्व छटा सीउस देव मूर्ति में, तव कोमलता ही तो थी वह<br />तुम्हे गढ़ा करती बेटी मैंयौवन वेला तरुणांगों प्रतिदिन प्रातः यही क्रम चलता, बनती और मिलती मिट्टी में, कमिलिनी सी जो फूल रही थी<br />
स्वर्ग प्रिये उषा समजातेकुलदेवी की प्रतिमा में भी, जगजीवन सरिता संग बहती<br />तुमको ही पूजा है मैंनेतव जीवन नौका अब आकरमेरी आशा और प्रेम में, मेरे ह्रदय घाट पर रूकती<br />और माँ के जीवन मेंमुखकमल निहार सदा रही तेराजो और रहेगी, डूबती रहस्योदधि अमर स्वामिनी अपने घर कीउसी गृहात्मा की गोदी में मैं<br />, तुम्ही पली हो युगों-युगों सेनिधि अमूल्य जगती विकसित होती हृदय कली की थी जो, हुई आज वह मेरी है<br />पंखुडियाँ जब खिल रही थींखो जाने के भय के कारणमंद सुगंध बनी सौरभ-सी, कसकर छाती के पास रखूं<br />तुम ही तो चँहु ओर फिरी थींकिस चमत्कार से जग वैभवसूर्योदय की पूर्व छटा-सी, बाँहों तब कोमलता ही तो थी वहयौवन वेला तरुणांगों में आया यही कहूं?<br />, कमिलिनी-सी जो फूल रही थी
स्वर्ग प्रिये उषा समजाते, जगजीवन सरिता संग बहतीतब जीवन नौका अब आकर, मेरे ह्रदय घाट पर रूकतीमुखकमल निहार रही तेरा, डूबती रहस्योदधि में मैंनिधि अमूल्य जगती की थी जो, हुई आज वह मेरी हैखो जाने के भय के कारण, कसकर छाती के पास रखूँकिस चमत्कार से जग वैभव, बाँहों में आया यही कहूँ? -रबिन्द्र नाथ रवीन्द्रनाथ ठाकुर की अंग्रेजी अंग्रेज़ी कविता "The beginning" से अनूदित <br />का अनुवाद -- '''मूल अंग्रेज़ी से अनुवाद : अत्रि 'गरुण'''' </poem>
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