रचनाकार: [[शिवमंगल संह 'सिंह सुमन']][[Category:शिवमंगल सिंह सुमन]][[Category:कविताएँ]]
~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~
तन खेयाखोया-खेयाखोया-सा लगता
मन उर्वर-सा हो जाता है
कुछ खेयाखोया-सा मिल जाता है
कुछ मिला हुआ खो जाता है।
यों ही सूने में अंतर के
कुछ भवभाव-अभव सुनाओ अभाव सुना डालूँ
कहता जितना कह पाता है
कितनी कितना भी कह डाले, लेकिन-
अनकहा अधिक रह जाता है
यदि चला गया तो रोना क्या?
ढलती दुनिया की के दानों में
सुधियों के तार पिरोना क्या?
मन रम जाए तो क्या कहना!
दौड़ादौड़-धूपी धूप के बीच एक-
क्षण, थम जाए तो क्या कहना!
कुछ खली खली खाली खाली होगा ही
जिसमें निश्वास समाया था
फिर भी सुनापन सूनापन साथ रहा
तो गति दूनी करनी होगी
सॉंचे साँचे के तीव्र-विवर्त्तन से
मन की पूनी भरनी होगी