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15:01, 24 जुलाई 2010 {{KKRachna
|रचनाकार=गुलज़ार
|संग्रह = पुखराज / गुलज़ार
}}
<poem>
जी में आता है कि इस कान में सुराख़ करूँ
खींचकर दूसरी जानिब से निकलूँ उसको
सारी की सारी निचोडूं ये रगें साफ़ करूँ
भर दूँ रेशम की जुलाई हुई भुक्की इसमें
कह्कहाती हुई भीड़ में शामिल होकर
मैं भी एक बार हँसू, खूब हँसू, खूब हँसू
</poem>