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छुईमुई / लीलाधर मंडलोई

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<poem>

मां को अमूमन जंगल जाना होता था
कभी जलावन
कभी महुए चुनने
कभी रेठू की भाजी
तो कभी घर पोतने के लिए
छुई की मिट्टी अबेरने

जंगल हमारी पाठशाला थी
जहां हम मां के साथ होते
और प्रकृति को जानते

मां हमें अक्‍सर बताती
कि पेड़-पौधों से प्रेम करो
उनमें मनुष्‍य सरीखा जीवन है
और हम सहज विश्‍वास न कर पाते

वह बड़े जतन से हमें समझाती
और हमारी बाल बुद्धि मौज में रहती

एक रोज मां हमें लेकर
ढूंढने लगी कोई पौधा
बहुत एकाग्रता में उनका होना था
और हठात निकला उनके मुंह से
हां ! यह रहा वह ....
मुस्‍कुराकर उन्‍होंने बुलाया पास
और अचानक काट ली एक चुटकी गाल पे
मैं जैसे चिहुंक उठा
प्‍यार से गाल को थपथपाकर फिर कहा

‘देखा जरा सी चुटकी से तुम्‍हें दर्द हुआ
ऐसा ही होता है पौधों के साथ
लेकिन वे तुम्‍हारी तरह बोल-बता नहीं सकते
आओ और छुओ इस पौधे की पत्तियों को
मैंने डरते हुए छुआ पत्तियों को
और वे जैसे घबराकर बंद हो गई तुरंत’

मां की तरफ देखा मैंने अचंभे से
कहा उसने, ‘यह छुईमुई है’

अब कुछ समझने की जरूरत न थी शेष
मैंने पलटकर देखा
पौधे की पत्तियां खुल रही थीं धीरे-धीरे
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